Monday, February 7, 2011

कुछ काली बुदबुदाहटें

वो अपना मीठा सा मुँह लेकर
सामने चली आई
उसके माथे की चमक से जब नजर हटी
चाँद बेदाग़ मालूम हुआ

उसके घुलते नैन,
सोने की चाह में
जागते रहते

उखड़े फूल की खुशबु की तरह
उसकी नाराजगियां
जेहन को पैवस्त करती

उस कड़वे सुख की लकीरें
धुंए के बालों की तरह
खिचती जाती
और रुख की मिट्टी
गीले आसुओं को
पीने तैयार हैं

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