वो अक्सर कल मैं ही जीती थी
अपनी आज की अनुभूतियों को,
किसी कल के लिये समेटती थी
खुद को आज की बारिश में इसीलिए भिगोती थी,
ताकि कल उसका मज़ा हासिल कर सके।
हर आनंद, हर चुटकी को इस तरह संजोती थी,
मानो कल के श्रोता को बखान की तैयारी में हो
आज की लहर को,
कल बन जाने पर अविरल निहारती थी
जीवन के सफ़र को,
समृति बन जाने पर गुजारती थी।
उसके मन-सरोवर में,
कल के कई चलचित्र मौजूद थे,
जिन्हें वह उत्सुकता से सुनाती थी
जो बीत गया स्वर्णयुग था,
ऐसी उसकी मान्यता थी
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