एक बार फिर वही हुआ जिसका अंदेशा था
झारखण्ड में खंडित जनादेश।
फिर सिलसिले शुरू होंगे,
खरीद फरोख्त और सीटों के बन्दरबाट के
फिर मारकाट मचेगी
अन्याय के नारे गूंजेंगे फिर शांत हो जायेंगे,
ताकि आगे की कार्रवाई शुरू हो
कुछ जेबें गरम हों,
कुछ घरों की आग से
जल जंगल जमीं सब जायज है
मगर हर जायज चीज़ जरूरी नहीं
जिसको आगे बढ़ना हो वो रास्ता खुद निकाले
खुद को जलाये या दुनिया को
इतनी दूरदर्शिता लेकर सोचना बेकार है
आज में जीने में ही भलाई है
उद्योग ही विकास है
उनकी जरूरत सर्वोपरि,
क्यूंकि वे समाज का स्तर ऊँचा किये हुए हैं
वे हमारे देश की बैसाखी हैं
उनके विषय में बहस निरर्थक है,
इसीलिए कुछ समाज के उत्तराधिकारियों का
उनके इशारों पर खेलना अनुचित नहीं,
जो वादे किये जा चुके हैं,
उनसे पीछे नहीं हटा जा सकता,
अनदेखा नहीं किया जा सकता।
आदिवासी क्या हैं ?
उस सभ्यता के पद चिन्ह,
जिन्हें परिवर्तन की हवाओं से मिटना होगा,
और आखिर वो भी तो गतिशील समाज हैं,
जिसमें कुछ भी ठहरा नहीं रह सकता।
यह जरूरी नहीं कि
सारी मानव जाती सिर्फ जल जंगल जमीं की उपासना में जुट जाये
और भी मक़ाम हैं काबिल-ऐ-हासिल
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